"ब्लॉग जगत में निर्मल हास्य या तो है ही नहीं या लोगों को हँसना नहीं आता
# हमारा समाज ‘एन्टी ह्यूमर’ है। हम मजाक की बात पर चिढ़ जाते हैं। व्यंग्य -विनोद और आलोचना सहन नहीं कर पाते।
# हिंदी में हल्का साहित्य बहुत कम है। हल्के-फ़ुल्के ,मजाकिया साहित्य, को लोग हल्के में लेते हैं। सब लोग पाण्डित्य झाड़ना चाहते हैं।
# गांवों में जो हंसी-मजाक है , गाली-गलौज उसका प्रधान तत्व है। वहां बाप अपनी बिटिया के सामने मां-बहन की गालियां देता रहता है। लेखन में यह सब स्वतंत्रतायें नहीं होतीं। इसलिये गांव-समाज हंसी-मजाक प्रधान होते हुये भी हमारे साहित्य में ह्यूमर की कमी है"
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ये किसने कह दिया कि हिंदी ब्लॉग पर "साहित्यकारों वो भी हिंदी के " का अधिकार हैं . हिंदी मे ब्लॉग लिखने वाले अहिन्दी भाषी भी हैं और जिनके लिये हिंदी साहित्य कि नहीं मात्र बोल चाल कि भाषा हैं . टंकण कि सुविधा मिल गयी , सो हिंदी मे लिख दिया . गीत , ग़ज़ल , कहानी और भी ना जाने क्या क्या लिखा जा सकता हैं क्युकी ये ब्लॉग माध्यम का उपयोग मात्र हैं . वैसे ब्लॉग केवल और केवल एक डायरी ही है जिस मे समसामयिक बाते जयादा होती हैं .
निर्मल हास्य कि परिभाषा स्थान से स्थान पर बदलती हैं . जिनकी परवरिश गाव और देहातो मे नहीं हुई हैं वो गोबर से होली खेलने को "गंदगी "कहते हैं जबकि गाव मे और कुछ ना मिले तो गोबर ही सही .
कुछ लोग ब्लॉग पर मुद्दे पर लिखते हैं तो कुछ लोग सर्जनात्मक । मुदे पर बहस हो सकती हैं लेकिन किसी कि सर्जनात्मकता पर नहीं . हां देखना ये हैं कि एक दूसरे के ऊपर तारीफ़ कि पोस्ट लगा लगा कर निर्मल हास्य को कब तक मुद्दा बना कर कौन कितना लिख सकता हैं . निर्मल हास्य का फ़ॉर्मूला या कहले कल्ट से जल्दी ही ऊब जायेगे लोग
चिटठा चर्चा पर कमेन्ट
सच बोलना जितना मुश्किल है , सच को स्वीकारना उस से भी ज्यादा मुश्किल है . लेकिन सच ही शाश्वत है और रहेगा मुझे अपने सच पर उतना ही अभिमान है जितना किसी को अपने झूठ से होने वाले फायदे पर होता हैं
मेरे ब्लॉग के किसी भी लेख को कहीं भी इस्तमाल करने से पहले मुझ से पूछना जरुरी हैं
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कहीं सुना था कि गाली तभी दो जब सुनने का माद्दा रखते हो। अब हास्य में यह सिद्धान्त प्रयुक्त होगा कि नहीं।
ReplyDeleteहास्य मन का एक सुंदर भाव है..इस की अहमियत शरीर,मन और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए है!...लेखन द्वारा इसे जता कर जीवन की गंभीरता को कम किया जा सकता है!..हास्य के अर्थ को अनर्थ में बदलने वाले लोग होते है...लेकिन इनको कोई क्या समझाएं!...बहुत महत्वपूर्ण लेख..धन्यवाद!
ReplyDeleteहास्य का सृजन अच्छा कार्य है. यह भी सच है कि हास्य की शैली कुछ देर के बाद पुरानी पड़ जाती है. फिलहाल आपके द्वारा दिए लिंक्स पर हास्य सृजन की सक्रियता नज़र आ रही है.
ReplyDeletekuchh sahi -kuchh nahi .hasya ke naampar kuchh log badtameeji par utar aate hai aur aise hadse shahron me jyada hai ,gaon me badon ka samman hai,lihaj hai .shahar vale ye bhav kho chuke hai .
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