हिंदी भाषा देश की भाषा हैं यानी हमारी "नेशनल लैंग्वेज" . लेकिन आज भी हिंदी पूरे देश में नहीं बोली जाती हैं
क्यों देश के हर राज्य में हिंदी नहीं पढ़ाई जाती हैं। हिंदी को पढ़ना या ना पढ़ना वैकल्पिक क्यों हैं , जरुरी क्यों नहीं ?
आज़ादी के इतने साल बाद भी हम राज्यों में बांटे जा चुके हैं। हर राज्य की अपनी भाषा हैं लेकिन राष्ट्र भाषा का ज्ञान नहीं हैं क्युकी मानना हैं की बोल चाल की भाषा जरुरी हैं हिंदी जरुरी नहीं हैं।
अभी हिंदी को लेकर यु पी एस सी के इम्तिहान को लेकर काफी बवाल हुआ , अंत में इंग्लिश के नम्बर मेरिट में नहीं जोड़े जायेगे ऐसा निर्णय हुआ और उसके साथ ही पेपर को अलग अलग भाषाओ में बनाने की बात होने लगी।
इसका तो सीधा मतलब यही हुआ की अगर कोई बंगाल से हैं , और बंगला भाषा में अपना पेपर लिखता हैं तो उसकी नियुक्ति भी बंगाल में ही होगी क्युकी उसके पास कोई भी कॉमन लैंग्वेज नहीं हैं जिसके कारण वो अन्य प्रांतो में काम कर सके।
अभी कॉमन भाषा का विकल्प इंग्लिश हैं। होना हिंदी को चाहिये था पर हैं नहीं और ना ही सब राज्य इसको मानने को तैयार होंगे।
प्रधानमंत्री ने कहा हैं वो सब जगह हिंदी में बोलेगे , चलिये उनको सुनने के लिये उत्सुक लोग ट्रांसलेटर की सुविधा रखते हैं { यानी दूसरे राष्ट्र के अधिकारी गण } पर हमारी प्रशासनिक सेवा अधिकारी जब अपने प्रान्त की जगह दूसरी जगह जायेगे तो किसी प्रकार बात कर सकेंगे। क्या बंगाल निवासी , ओरिसा में बंगाली में बोलेगा या ओरिया बोलेगा क्युकी दोनों को ही हिंदी और इंग्लिश नहीं आती होगी या आती भी होगी तो भी वो बोलेगे नहीं। क्या इन सब को भी ट्रांसलेटर की सुविधा होगी।
हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले इंग्लिश माध्यम से पढ़ने वालो से लड़ रहे हैं लेकिन हिंदी को हर राज्य में राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त हो इसकी लड़ाई कौन लड़ेगा ?
जब तक हर नागरिक के लिये हिंदी पढ़ना ही नहीं उसमे प्रवीण होना आवश्यक नहीं होगा इंग्लिश ही वैकल्पिक भाषा रहेगी। नार्थ में रहने वाले ज्यादातर लोग हिंदी , इंग्लिश दोनों भाषा का ज्ञान रखते हैं और अपनी रोजी रोटी के हिसाब से अपनी भाषा का चुनाव करते हैं पर बाकी जगह देश में ?
क्यों देश के हर राज्य में हिंदी नहीं पढ़ाई जाती हैं। हिंदी को पढ़ना या ना पढ़ना वैकल्पिक क्यों हैं , जरुरी क्यों नहीं ?
आज़ादी के इतने साल बाद भी हम राज्यों में बांटे जा चुके हैं। हर राज्य की अपनी भाषा हैं लेकिन राष्ट्र भाषा का ज्ञान नहीं हैं क्युकी मानना हैं की बोल चाल की भाषा जरुरी हैं हिंदी जरुरी नहीं हैं।
अभी हिंदी को लेकर यु पी एस सी के इम्तिहान को लेकर काफी बवाल हुआ , अंत में इंग्लिश के नम्बर मेरिट में नहीं जोड़े जायेगे ऐसा निर्णय हुआ और उसके साथ ही पेपर को अलग अलग भाषाओ में बनाने की बात होने लगी।
इसका तो सीधा मतलब यही हुआ की अगर कोई बंगाल से हैं , और बंगला भाषा में अपना पेपर लिखता हैं तो उसकी नियुक्ति भी बंगाल में ही होगी क्युकी उसके पास कोई भी कॉमन लैंग्वेज नहीं हैं जिसके कारण वो अन्य प्रांतो में काम कर सके।
अभी कॉमन भाषा का विकल्प इंग्लिश हैं। होना हिंदी को चाहिये था पर हैं नहीं और ना ही सब राज्य इसको मानने को तैयार होंगे।
प्रधानमंत्री ने कहा हैं वो सब जगह हिंदी में बोलेगे , चलिये उनको सुनने के लिये उत्सुक लोग ट्रांसलेटर की सुविधा रखते हैं { यानी दूसरे राष्ट्र के अधिकारी गण } पर हमारी प्रशासनिक सेवा अधिकारी जब अपने प्रान्त की जगह दूसरी जगह जायेगे तो किसी प्रकार बात कर सकेंगे। क्या बंगाल निवासी , ओरिसा में बंगाली में बोलेगा या ओरिया बोलेगा क्युकी दोनों को ही हिंदी और इंग्लिश नहीं आती होगी या आती भी होगी तो भी वो बोलेगे नहीं। क्या इन सब को भी ट्रांसलेटर की सुविधा होगी।
हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले इंग्लिश माध्यम से पढ़ने वालो से लड़ रहे हैं लेकिन हिंदी को हर राज्य में राष्ट्र भाषा का दर्जा प्राप्त हो इसकी लड़ाई कौन लड़ेगा ?
जब तक हर नागरिक के लिये हिंदी पढ़ना ही नहीं उसमे प्रवीण होना आवश्यक नहीं होगा इंग्लिश ही वैकल्पिक भाषा रहेगी। नार्थ में रहने वाले ज्यादातर लोग हिंदी , इंग्लिश दोनों भाषा का ज्ञान रखते हैं और अपनी रोजी रोटी के हिसाब से अपनी भाषा का चुनाव करते हैं पर बाकी जगह देश में ?
सब को हिंदी सिखाने की जिद्द क्यों है? अगर राजस्थानी को मान्यता होती तो हम शायद हिंदी सीखे भी नही होते.. हिंदी के चक्कर में मैं अपनी मातृभाषा नहीं सीख पाया...
ReplyDeleteसही बात...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ