आज कल तमाम रिफ्यूजी समस्या चर्चा में हैं। कुछ दिन पहले रवांडा रिफ्यूजी चर्चा मे थे आज कल सीरिया के हैं।
लोग यूरोप पर थूक रहे हैं क्युकी उन्होने इनलोगो को शरण नहीं दी।
हमलोगो के आस पास कितने हमारे अपने आर्थिक रूप से कमजोर रिश्तेदार परिवार हैं क्या हम सब उनको आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अपने घर में ले आते हैं ?
क्या हम सब अपनी आर्थिक क्षमता का आंकलन नहीं करते हैं ?
कितने बांग्ला देशी कितने साल तक हमारे देश में रहे और आज भी हैं क्या उस से देश की इकॉनमी पर कोई असर नहीं पड़ा ?
यूरोप मे खुद बहुत से ऐसे देश हैं जो इस समय रिसेशन का शिकार हैं तो अगर यूरोप नहीं चाहता की बाहर के लोग आकर उनकी इकॉनमी पर और बोझ डाले तो इसमे क्या गलत हैं ?
कभी कभी सोचो तो लगता हैं जो लोग इललीगल तरीके से जीवन यापन करते हैं उन्हे ही दूसरो से सबसे ज्यादा चाहिये होता हैं
आज कल जो स्त्री मेरे ऑफिस में झाड़ू पोछा करती हैं वो एक महिने पहले दिल्ली आयी हैं , इस काम को वो बेहद बेमन से करती हैं।
कल उससे बात की तो पता लगा गाँव में एक जमीन ली हैं कर्जा उठाया हैं १ लाख का चुकाना हैं।
मैने कहा इसका मतलब हैं की कम से कम २० हज़ार रूपए महीने की कमाई हो तो १० हज़ार गाँव भेज कर तुम बाकी दस हज़ार में खुद पति और ३ बच्चो के साथ यहां गुजारा कर सकती हो। कहने लगी इतना तो नहीं हो सकता। मुश्किल से १०००० हो पाता हैं जिसमे ३ हज़ार एक दस साल का उसका लड़का कमाता हैं। रोज का ४ समय का पूरा भोजन भी नहीं सही मिलता।
गाँव में ससुर का १० कमरो का मकान हैं ३ बेटो के ३ ३ कमरे। ३ परिवार साथ रह रहे थे। दिन में आराम था किसी के घर नहीं जाना होता था।
यहां शहर के लोग बहुत काम लेते हैं पैसा कम देते हैं।
अब शहर के लोग कैसे अपना जीवन यापन करते हैं , कैसे अपने बच्चो की ३००० - ८००० रूपए महीने की स्कूल फीस देते हैं इस सब से उनको क्या।
उनके बारे में कोई नहीं सोचता।
कौन किसके बारे में कितना सोचता हैं इसकी इकोनॉमिक्स बहुत काम्प्लेक्स हैं
सही कहा.
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