अब पुरूस्कार मिलते नहीं
प्राप्त किये जाते हैं
अच्छा हैं कुछ तो समय बदला
वर्ना सब कुछ यहाँ
हिंदी वालो के लिये
मरणोपरांत ही होता था
अब किस मे हैं इतनी सहनशीलता
कि लिखता रहे मरने तक
और मर जाये लिखते लिखते
एक पुरूस्कार की आस मे
अब तो सब रेडीमेड होगया हैं
लिखना भी , पुरुस्कृत होना भी
पहले लोग कहते थे
हमे अपनी जिंदगी लगा दी
तब जा कर लिखने का
सलीका आया
अब लोग कहते हैं
हमने एक ग्रुप बनाया और
लिखने वालो को
पुरूस्कार पाने का
सलीका सिखाया
सच बोलना जितना मुश्किल है , सच को स्वीकारना उस से भी ज्यादा मुश्किल है . लेकिन सच ही शाश्वत है और रहेगा मुझे अपने सच पर उतना ही अभिमान है जितना किसी को अपने झूठ से होने वाले फायदे पर होता हैं
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