मेरा कमेन्ट यहाँ
वाणी जी
हिंदी की किताबे , कहानी , कविता और भी बहुत कुछ सब सहयोग की राशि से ही छप रहा हैं , कम से कम पिछले २० साल से तो मै अपने आस पास देख रही हूँ . कारण ये नहीं हैं की प्रकाशक के पास क़ोई आर्थिक संकट हैं . कारण ये हैं की पाठक नहीं हैं जो किताब को खरीद कर पढ़े , विश्विद्यालय में लाइब्ररी के पास फंड नहीं होते , जगह नहीं होती सो वहाँ भी बिक्री कम ही हैं , अब या तो सरकारी अनुदान मिलता हैं और किताब छपती हैं { इसके लिये तगड़ा पी आर चाहिये और ये जाना माना तथ्य हैं की अनुदान राशि में कुछ उसका होता हैं जो अनुदान दिलवाता हैं } सहयोग से प्रकाशक छपता हैं पर बेचता नहीं हैं . ये भी काम लेखक का हैं . जब तक आप में सामर्थ्य हैं आर्थिक आप ये कर सकती हैं , इस में कुछ भी गलत नहीं हैं , छप जाए तो लोगो को बाँट सकती हैं सब कहेगे , मेरी प्रति कहां हैं , यानी अगर आप ने ५००० की न्यूनतम राशि दी हैं और बदले में १०० किताब आप को मिल गयी हैं तो आप को बस एक ही सुख हैं लोगो को किताब गिफ्ट करने का आप को क़ोई आर्थिक लाभ नहीं हैं , जबकि पब्लिशर के पास जो प्रतियां बचती हैं और अगर वो उनको बेच लेता हैं तो ये उसकी कमाई हैं . ज्यादा तर पूरा खर्चा आप की दी राशि से ही निकल आता हैं
किताब छप कर प्रिंट मीडिया में आने से एक अचीवमेंट की अनुभूति होती हैं जो अपने आप में बहुत हैं , लेकिन किताब की शेल्फ लाइफ बहुत कम हैं . अगर आप भी क़ोई किताब खरीद कर लाती हैं कितनी बार पढती हैं , फिर उसका क्या करती हैं ? मेरे घर हिंदी पुस्तकों की एक लाइब्ररी थी , माँ - पिता की बनाई हुई , कहां कहां की किताबे नहीं हैं , फिर वो लाइब्ररी से एक अम्बार होगया , अब एक ढेर हैं अलमारी में बंद . और जानती हूँ एक दिन केवल और केवल कबाड़ की तरह बेचना पड़ेगा मुझे . बहुत कष्ट होगा पर क्या ऑप्शन हैं मेरे पास ? मेरा विषय हिंदी नहीं है , क़ोई लाइब्ररी लेने को तैयार नहीं हैं , जिन विषयों पर वो किताबे हैं वो विषय आज कल छात्र नहीं पढते . कितने लोगो से में संपर्क कर चुकी एक ही जवाब होता हैं घर में इतनी जगह ही नहीं हैं . एक और परिवार के पास भी इसी तरह से एक अम्बार हैं , गठरी बना टांड पर चढ़ा .
बस एक बात और
@कशमकश सी रहती है कि व्यर्थ वाग्जाल में फंसकर अपनी साहित्यिक अभिरुचि को बाधित करना क्या उचित है .
हिंदी ब्लॉग लेखन हिंदी साहित्यकारो का अड्डा ना बने तब ही सार्थक ब्लॉग लेखन होगा , हिंदी साहित्यकारों में कितना वाद विवाद हैं और कितनी रंजिशे होती हैं पता नहीं हैं आप कितना जानती हैं , सबको लगता हैं वो सबसे अच्छा लिखते हैं . ब्लॉग पर साहित्य लिखिये , जरुर लिखिये , क्युकी इस फ्री मीडियम के जरिये आप अपनी किताब , इ बुक बना सकती हैं , कोशिश करिये की आप पढने के लिये पाठक से एक राशि ले .
पर ब्लॉग लेखन को "व्यर्थ वाग्जाल" कह कर उन सब को अपने से { यानी वो सब जो अपने को हिंदी का साहित्यकार मानते हैं और ब्लॉग पर हिंदी सुधारने और उसको आगे बढ़ाने और दूसरे ब्लोग्गर की हिंदी सही करने , के लिये ही ब्लॉग लेखन करते हैं } छोटा ना माने .
ब्लॉग मीडियम विचारों की अभिव्यक्ति हैं , बहुत से लेखक और अपने को साहित्यकार समझने वाले लोग इस से केवल इस लिये जुड़े हैं क्युकी उनको कहीं क़ोई जानता ही नहीं हैं .
हैरी पोट्टर की लेखिका रोव्लिंग कभी एक ऐसी गृहणी थी जो पैसे पैसे को मुहताज थी , अपनी पहली पाण्डुलिपि एक रेस्तोरांत में बैठ के लिखी थी , छप गयी आज करोडो में खेल रही हैं , पहली , व्यस्को के लिये , किताब उनकी आज आ रही हैं और पहले ही बेस्ट सेलर हो चुकी हैं . साहित्यकार फिर भी नहीं समझी जाती हैं .
हिंदी में क़ोई ऐसा लेखक आप बता सकती हैं जिसकी किताब की प्रतियां , बिना मार्केट में आये ही बिक चुकी हो ???
मुद्दा किताब छापने से नहीं ख़तम होता हैं , मुद्दा है क्या आप के पास ऐसे पाठक हैं जो आप के लिखे को खरीद कर पढ़े . ????
अन्यथा वो ५००० हज़ार जो आप खर्च कर रही उस से मिली १०० प्रतियां आप कहां रखेगी , उसकी जगह बनाये और अगर विमोचन इत्यादि करवाना हो तो भी पैसे तैयार रखे , हाँ दोस्तों की पार्टी भी बनती हैं किताब छपने के बाद , सो मेरा निमंत्रण भेजना ना भूले और ज्यादा लिखे को कम समझे :)
वाणी जी
हिंदी की किताबे , कहानी , कविता और भी बहुत कुछ सब सहयोग की राशि से ही छप रहा हैं , कम से कम पिछले २० साल से तो मै अपने आस पास देख रही हूँ . कारण ये नहीं हैं की प्रकाशक के पास क़ोई आर्थिक संकट हैं . कारण ये हैं की पाठक नहीं हैं जो किताब को खरीद कर पढ़े , विश्विद्यालय में लाइब्ररी के पास फंड नहीं होते , जगह नहीं होती सो वहाँ भी बिक्री कम ही हैं , अब या तो सरकारी अनुदान मिलता हैं और किताब छपती हैं { इसके लिये तगड़ा पी आर चाहिये और ये जाना माना तथ्य हैं की अनुदान राशि में कुछ उसका होता हैं जो अनुदान दिलवाता हैं } सहयोग से प्रकाशक छपता हैं पर बेचता नहीं हैं . ये भी काम लेखक का हैं . जब तक आप में सामर्थ्य हैं आर्थिक आप ये कर सकती हैं , इस में कुछ भी गलत नहीं हैं , छप जाए तो लोगो को बाँट सकती हैं सब कहेगे , मेरी प्रति कहां हैं , यानी अगर आप ने ५००० की न्यूनतम राशि दी हैं और बदले में १०० किताब आप को मिल गयी हैं तो आप को बस एक ही सुख हैं लोगो को किताब गिफ्ट करने का आप को क़ोई आर्थिक लाभ नहीं हैं , जबकि पब्लिशर के पास जो प्रतियां बचती हैं और अगर वो उनको बेच लेता हैं तो ये उसकी कमाई हैं . ज्यादा तर पूरा खर्चा आप की दी राशि से ही निकल आता हैं
किताब छप कर प्रिंट मीडिया में आने से एक अचीवमेंट की अनुभूति होती हैं जो अपने आप में बहुत हैं , लेकिन किताब की शेल्फ लाइफ बहुत कम हैं . अगर आप भी क़ोई किताब खरीद कर लाती हैं कितनी बार पढती हैं , फिर उसका क्या करती हैं ? मेरे घर हिंदी पुस्तकों की एक लाइब्ररी थी , माँ - पिता की बनाई हुई , कहां कहां की किताबे नहीं हैं , फिर वो लाइब्ररी से एक अम्बार होगया , अब एक ढेर हैं अलमारी में बंद . और जानती हूँ एक दिन केवल और केवल कबाड़ की तरह बेचना पड़ेगा मुझे . बहुत कष्ट होगा पर क्या ऑप्शन हैं मेरे पास ? मेरा विषय हिंदी नहीं है , क़ोई लाइब्ररी लेने को तैयार नहीं हैं , जिन विषयों पर वो किताबे हैं वो विषय आज कल छात्र नहीं पढते . कितने लोगो से में संपर्क कर चुकी एक ही जवाब होता हैं घर में इतनी जगह ही नहीं हैं . एक और परिवार के पास भी इसी तरह से एक अम्बार हैं , गठरी बना टांड पर चढ़ा .
बस एक बात और
@कशमकश सी रहती है कि व्यर्थ वाग्जाल में फंसकर अपनी साहित्यिक अभिरुचि को बाधित करना क्या उचित है .
हिंदी ब्लॉग लेखन हिंदी साहित्यकारो का अड्डा ना बने तब ही सार्थक ब्लॉग लेखन होगा , हिंदी साहित्यकारों में कितना वाद विवाद हैं और कितनी रंजिशे होती हैं पता नहीं हैं आप कितना जानती हैं , सबको लगता हैं वो सबसे अच्छा लिखते हैं . ब्लॉग पर साहित्य लिखिये , जरुर लिखिये , क्युकी इस फ्री मीडियम के जरिये आप अपनी किताब , इ बुक बना सकती हैं , कोशिश करिये की आप पढने के लिये पाठक से एक राशि ले .
पर ब्लॉग लेखन को "व्यर्थ वाग्जाल" कह कर उन सब को अपने से { यानी वो सब जो अपने को हिंदी का साहित्यकार मानते हैं और ब्लॉग पर हिंदी सुधारने और उसको आगे बढ़ाने और दूसरे ब्लोग्गर की हिंदी सही करने , के लिये ही ब्लॉग लेखन करते हैं } छोटा ना माने .
ब्लॉग मीडियम विचारों की अभिव्यक्ति हैं , बहुत से लेखक और अपने को साहित्यकार समझने वाले लोग इस से केवल इस लिये जुड़े हैं क्युकी उनको कहीं क़ोई जानता ही नहीं हैं .
हैरी पोट्टर की लेखिका रोव्लिंग कभी एक ऐसी गृहणी थी जो पैसे पैसे को मुहताज थी , अपनी पहली पाण्डुलिपि एक रेस्तोरांत में बैठ के लिखी थी , छप गयी आज करोडो में खेल रही हैं , पहली , व्यस्को के लिये , किताब उनकी आज आ रही हैं और पहले ही बेस्ट सेलर हो चुकी हैं . साहित्यकार फिर भी नहीं समझी जाती हैं .
हिंदी में क़ोई ऐसा लेखक आप बता सकती हैं जिसकी किताब की प्रतियां , बिना मार्केट में आये ही बिक चुकी हो ???
मुद्दा किताब छापने से नहीं ख़तम होता हैं , मुद्दा है क्या आप के पास ऐसे पाठक हैं जो आप के लिखे को खरीद कर पढ़े . ????
अन्यथा वो ५००० हज़ार जो आप खर्च कर रही उस से मिली १०० प्रतियां आप कहां रखेगी , उसकी जगह बनाये और अगर विमोचन इत्यादि करवाना हो तो भी पैसे तैयार रखे , हाँ दोस्तों की पार्टी भी बनती हैं किताब छपने के बाद , सो मेरा निमंत्रण भेजना ना भूले और ज्यादा लिखे को कम समझे :)
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