हिंदी में सहयोग राशि से प्रकाशक पुस्तके छापते हैं और सहयोग राशि लेने के बाद फ़ोन भी उठाना बंद कर देते हैं . एग्रीमेंट करने के बाद लेखक की पांडुलिपि अपने पास रख लेते हैं और साल साल भर तक पुस्तक को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं .
बहुत से हिंदी के लेखक अक्सर इस प्रक्रिया से गुजरते हैं और अगर उनसे कहों की आप इस प्रकार का गैर जिम्मेदारना रवयीआ क्यूँ स्वीकार करते हैं तो पता चलता हैं की एग्रीमेंट में राशि , लेखक और प्रकाशक का तो पूरा उल्लेख होता हैं लेकिन कहीं भी उस तारीख का कोई उल्लेख नहीं होता जिस तारीख को पुस्तक प्रकाशित होनी होती हैं .
क्या हिंदी के लेखक इतने अनभिज्ञ हैं या हिंदी की पुस्तके इसी प्रकार से छापी जाती रही हैं . ब्लॉग जगत में भी बहुत से ब्लोगर अपनी पुस्तके सहयोग राशि से ही छपवा रहे हैं .
क्या उन्हे भी इसी प्रक्रिया से गुजरना होता हैं .
क्या ऐसे प्रकाशक के ऊपर कोई भी क़ानूनी कार्यवाही महज इस लिये नहीं हो सकती क्युकी एग्रीमेंट में कोई डेट दी ही नहीं होती हैं जिस पर पुस्तक छप कर लेखक को देना प्रकाशक का काम हो .
बहुत से हिंदी के लेखक अक्सर इस प्रक्रिया से गुजरते हैं और अगर उनसे कहों की आप इस प्रकार का गैर जिम्मेदारना रवयीआ क्यूँ स्वीकार करते हैं तो पता चलता हैं की एग्रीमेंट में राशि , लेखक और प्रकाशक का तो पूरा उल्लेख होता हैं लेकिन कहीं भी उस तारीख का कोई उल्लेख नहीं होता जिस तारीख को पुस्तक प्रकाशित होनी होती हैं .
क्या हिंदी के लेखक इतने अनभिज्ञ हैं या हिंदी की पुस्तके इसी प्रकार से छापी जाती रही हैं . ब्लॉग जगत में भी बहुत से ब्लोगर अपनी पुस्तके सहयोग राशि से ही छपवा रहे हैं .
क्या उन्हे भी इसी प्रक्रिया से गुजरना होता हैं .
क्या ऐसे प्रकाशक के ऊपर कोई भी क़ानूनी कार्यवाही महज इस लिये नहीं हो सकती क्युकी एग्रीमेंट में कोई डेट दी ही नहीं होती हैं जिस पर पुस्तक छप कर लेखक को देना प्रकाशक का काम हो .
अनुभवहीन हूँ !!
ReplyDeleteजी बहुत लोग ऐसी शिकायत करतें
ReplyDeleteलेकिन किताब छपवाने वाले और छापने वाले दोनों में गोरखधंधा है। खासतौर पर वो जो लोग दूसरों से पैसे लेते हैं, उनकी रचना पुस्तक में छापने के लिए...
्हमें तो पता नहीं इस बारे में कुछ भी
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