किसी को उसकी लड़ाई हारते हुए देखने के बाद भी उसको लड़ते रहने के लिये , लड़ाई जारी रखने के लिये उकसाने से आप उसको उसकी हार को स्वीकार ना करने देने के दोषी हैं।
जैसे लड़ाई के कई कारण होते हैं वैसे ही जीतने और हारने के कारण भी होते हैं। समय और परिवेश का भी रोल होता हैं।
ये जानते हुए की किसी की लड़ाई उसके लिये जीवन मरण का प्रश्न हैं न्याय और धर्म दोनों कहते हैं जीवन को चुनो। खुद कृष्ण ने अपने लिये "रणछोड़" की उपाधि से उरेज नहीं किया था क्युकी अगर लड़ाई के लिये रहोगे ही नहीं तो लड़ोगे कैसे।
चाणक्य ने भी यही कहा हैं की अगर समय और परिस्थिति अनुकूल ना हो तो पहले उसको अनुकूल बनाये और फिर अपनी लड़ाई चालू रखे।
किसी को नेता बना कर उसको मरने के लिये उकसाने वाले भी उसकी आत्महत्या के लिये उतने ही उत्तरदाई हैं जितना वो सिस्टम जो सबको लड़ने के लिये मजबूर करता हैं।
आत्महत्या करने वाला disillusioned होता हैं और जब ये डिसील्युशन अपने से होता हैं तो उसका युद्ध समाप्त हो जाता हैं और वो आत्महत्या करता हैं।
अपने आप से उतनी ही आशा रखना जरुरी हैं जितनी हम पूरी कर सके। और दुसरो को उकसाने से बेहतर होता हैं अगर हम उसको ये समझाए की अभी परिस्थिति अनुकूल नहीं हैं इस लिये अपने को और मजबूत बनाओ तब कर्म के युद्ध को आगे बढ़ाओ।
जाति और धर्म के नाम पर उकसा कर युवा पीढ़ी को अलग अलग समय और स्थान पर मरने को मजबूर किया जा रहा हैं केवल देश और काल का अंतर मात्र हैं।
कही धर्म के नाम पर आत्मघाती बॉम्बर त्यार किये जाते हैं तो कहीं धर्म के नाम पर धरना और एनार्की को बढ़वा दिया जाता और युवा पीढ़ी मरने के लिये तत्पर हो जाती हैं। कोई पेट्रोल डाल कर किसी कमीशन के साथ/ विरोध में आत्मदाह करता हैं तो कोई फांसी लगा कर।
केवल सिस्टम जिम्मेदार नहीं हैं और देश और सरकार तो बिलकुल नहीं हैं क्युकी देश स्थाई हैं सरकार चुन कर आती हैं।
कानून को ना मानना ही एक मात्र कारण हैं इस सब का। कानून का विरोध कानून को मानने से ज्यादा होता हैं।
डिसिप्लिन का महत्व अब रहा ही नहीं हैं।
आप के आस पास अगर आग लगी हैं तो उसको बुझाने ने सहयोग करिये। भड़काने से धुँआ उठाएगा जो प्रदुषण फैलाता हैं। प्रदुषण मुक्त समाज ही सबको बराबर मान सकता हैं