हिंदी ब्लॉग विमर्श दिल्ली , १३ नवम्बर को दिल्ली मे संपन्न हुआ । एक रिपोर्ट यहाँ दी हैं और ये पोस्ट रिपोर्ट नहीं हैं हाँ मेरे मन मे उस विमर्श के बाद जो बाते आयी , ये पोस्ट उनका शाब्दिक स्वरुप हैं । इन पर विमर्श हो सकता हैं अगर कोई करना चाहे तो इस पोस्ट मे कमेन्ट से ।
संगोष्ठी का निर्धारित समय था ३ बजे दोपहर और काफी लोग उस समय तक आ ही गये थे लेकिन मुख्य अतिथि नहीं आये थे जो तक़रीबन ३.४०-३.५० के आस पास ही आये { या आ सके }
क्या मीटिंग तब तक शुरू नहीं की जा सकती थी ??? अगर कहीं विदेश मे ये मीट होती तो समय कि पाबन्दी सब पर होती हैं क्युकी समय से शुरू होगी तो ज्यादा बात हो सकती हैं । हम क्यूँ कोई भी काम समय सारणी से नहीं कर सकते हैं ।??जो लोग समय से आये वो समय से जाना भी चाहते थे और चले भी गए , मुख्य अतिथि को बिना सुने । सबके अपने अपने निरधारित काम हैं और उस पर वापस जाना भी जरुरी हैं
मीटिंग शुरू होने से पहले और मुख्या अतिथि के आने से पहले ही अल्पाहार का बंदोबस्त हो गया , समय बीतने के लिये करना था कुछ काम !!! अब प्रश्न ये हैं कि क्या २ घंटे की मीटिंग मे अल्पाहार कि जरूरत भी हैं ??? ये औपचारिकताये ना हो तो क्या अच्छा नहीं होगा ??? २ घंटे का समय अगर केवल विमर्श के लिये होता तो निश्चय ही कुछ विमर्श होता । केवल पानी कि व्यवस्था होती और वो भी छोटी वाली मिनिरल वाटर कि जिसके लिये हम पैसा दे सकते तो ज्यादा बेहतर होता । अल्पाहार एक प्रकार का अपव्य ही था जिसको रोका जाना चाहिये ।
अल्पाहार कि वजह से आयोजको को टिका टिपण्णी भी सुननी पड़ती हैं । मुझे आयोजक ने वो रजिस्टर भी दिखाया जहा किसी ब्लॉगर ने "सुझावों " के कोलम मे लिखा था "चाय गर्म नहीं थी " । उनको इस बात से बहुत चोट पहुची थी । कोई भी प्रथा ना बनाये और हर आडम्बर से ब्लॉग विमर्श कि मीट को दूर रखे तो एक नयी बात होगी अन्यथा ये सब मिलने और मिलाने कि चाय पार्टी से ऊपर कुछ नहीं नहीं होगा { इसके लिये स्नेह मिलन अलग से आयोजित किये जा सकते हैं जिनको नेट्वोर्किंग मे रूचि हो उनके लिये }
मुख्य अतिथि के आने के बाद मीटिंग शुरू हुई और उसमे फिर ओपचारिक आडम्बर हुआ । यानी मुख्य अतिथि का स्वागत किया गया दो बड़े बड़े बुके दे कर । कम से कम भी माने तो एक बुके १०० रूपए का होगा ही । एक तरफ हम भारतीये सभ्यता और संस्कृति कि बात करते हैं तो दूसरी तरफ हम अग्रेजो कि छोड़ी हुई प्रथाओ को निरंतर मान्यता देते हैं । इस पैसे मे कुछ और पैसे मिला कर मुख्य अतिथि को कुछ पुस्तके भेट दी जासकती थी जिनको वो अपने साथ ले जा सकते थे । पुस्तकों पर हर आने वाले ब्लॉगर के हस्ताक्षर ले कर उनको यादगार बनाया जा सकता हैं और हिंदी कि पुस्तके जो बिकती नहीं हैं उनको ख़रीदा जा सकता था । इस के लिये साहित्य से जुड़े ब्लॉगर से भी उनकी पुस्तके खरीदी जा सकती थी । बेकार के आडम्बरो पर पैसा नष्ट करने से बेहतर था हम उस पैसे किसी गरीब बच्चे को वही कुछ खिला दे ।
ब्लॉग विमर्श कि मीट को आडम्बर विहीन रखा जाये ऐसा मेरा मानना हैं । विमर्श हो और कुछ नहीं ।
और विमर्श आत्म मंथन ही हैं जिसको मे ब्लॉग पर पोस्ट के रूप मे दे रही हूँ । इस को सकारात्मक , नकारात्मक ईत्यादी कि परिधि में ना बंधे
ब्लॉग विमर्श मे हुआ क्या इस पर अगली पोस्ट अगर आप को उत्सुकता हो तो .
सच बोलना जितना मुश्किल है , सच को स्वीकारना उस से भी ज्यादा मुश्किल है . लेकिन सच ही शाश्वत है और रहेगा मुझे अपने सच पर उतना ही अभिमान है जितना किसी को अपने झूठ से होने वाले फायदे पर होता हैं
मेरे ब्लॉग के किसी भी लेख को कहीं भी इस्तमाल करने से पहले मुझ से पूछना जरुरी हैं
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बात तो पते की कही आपने…
ReplyDeleteअगली किस्त का इन्तज़ार बिलकुल है…
रचना जी आपके विचारों से सहमत हूँ।फिजूलखर्ची बन्द होनी चाहिये।लेकिन मोबाईल से कुछ फोटो तो खींची ही जा सकती है न ।आप ब्लॉग पर रीपोर्ट के अलावा पोस्ट के रूप में इन्हें अलग से लगा सकते हैं ।माना कि इससे कोई विमर्श खडा नहीं किया जा सकता परंतु बस इन्हे देखना अच्छा लगता है ।बाकी नारी ब्लॉग पर अच्छी चर्चा हुई है ।
ReplyDeleteआप के प्वायंट्स विचारणीय हैं जी
ReplyDeleteबिना लाग लपेट के सच कहा आपने
प्रणाम
नास्ते का मीनू क्या था दादा
ReplyDelete1. ब्लाग4वार्ता :83 लिंक्स
2. मिसफ़िट पर बेडरूम
लिंक न खुलें तो सूचना पर अंकित ब्लाग के नाम पर क्लिक कीजिये
सामान्य शिष्टाचार /सद्भाव के प्रदर्शन की भारत की पुरानी संस्कृति है ,शायद 'निसेसरी इविल' और इससे शायद पीछा छुडाना मुश्किल है ...
ReplyDeleteहाँ चाय दी जाय तो वह गर्म रहे इतना तो ध्यान देना ही चाहिए ..मैं तो इलाहाबाद के एक सम्मलेन में बेड टी न मिलने पर भन्ना गया था ...जिसकी चुटकी का कोई मौका अनूप शुक्ल जी और उनके शागिर्द कभी नहीं चूकते :)
इसलिए ही आजकल इवेंट मैनेजमेंट प्रोफेसनल के हाथ जा रहा है .....
छोटे कसबे में तो लोग चाय वाय के चक्कर में बैठकों में जाते हैं मगर शायद बड़े शहरों में ऐसा नहीं होता होगा ! बाई द वे नाश्ते था क्या ??? कोई बताएगा ??
अपने पते की बात की.. हम ज्यादा क्रिएटिव हो सकते है..
ReplyDeleteमेरा विनम्र विचार है कि कुछ करके मिसाल कायम की जाए तो हम लोग उसका उचित तौर पर अनुकरण कर सकेंगे। बिना लाग लपेट के लपेटना-झपेटना एक ऐसी कला है, जिसमें कोई भी कलाकार हो सकता है। कलाकार बनो तो गांधी जी जैसा, जिन्होंने एक बच्चे को मां की शिकायत पर गुड़ खाने से तब मना किया, जब उन्होंने पहले खुद गुड़ खाना छोड़ दिया।
ReplyDeleteऐसा ही करना व्यवहारिक होता है।
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteरचना जी, रजिस्टर में सुझाव का कालम था ... परागन में हमने देख लिया था चाय का भी 'प्रोग्राम' है - अत: सुझाव लिख दिया... "चाय गर्म होना चाहिए" .... मेरे ख्याल से इस पर इत्ती नाराजगी अच्छी नहीं है.......
ReplyDeleteगर बुरा लगा तो क्षमाप्रार्थी... और आईन्दा कहीं भी रजिस्टर में सुझाव का देखेंगे भी नहीं...
जय राम जी की
deepak ji
ReplyDeletemaaf kariyaegaa aap ne post padhii nahin kyuki naa to mae ayojak thee naa maene chaay ki vyavstha ki
aur mae meri narazgi haen
maenae wo likha jaesa wahaan hua
avinash ji aap ne bilkul sahii kehaa
ReplyDeletekyuki mae apnae jeevan mae kisi bhi aadambar , aarthik laedaen aur paesae kaa durupyog saqe dur rehtee hu is liyae hi in baato par soch saktee hun
naari blog par mae already ayojako kaa dhnywaad kar chuki hun report mae
yae reprt nahin haen aur haan karnae jaesa kuchh karnae ko hoga tabhie kuchh karugi
आपके सुझाव अच्छे व विचारणीय है |
ReplyDeleteबिना लाग लपेट के कही गयी बात मुझे बहुत अच्छी लगी. अगली किस्त का इंतजार रहेगा जी.....
ReplyDeleteआपका विचार उत्तम है, पर दुनिया ऐसे नहीं चलती जनाब.
ReplyDeleteयदि अतिथि को बुके नहीं दिए जाते तो ना तो अतिथि को अच्छा लगता और ना ही देखने वालों को लगता कि अतिथि बाकी कोई बड़े व्यक्ति हैं.
मेरा विनम्र विचार है कि कुछ करके मिसाल कायम की जाए तो हम लोग उसका उचित तौर पर अनुकरण कर सकेंगे। अविनाश वाचस्पति said...
ReplyDeletebilkul sahi kaha .
hum aap ki baat se sahmat hai .
रचना जी ,
ReplyDeleteइसमें कोई संदेह नहीं कि आप अपनी बातें स्पष्ट रूप से यूं ही कह जाती हैं और जैसा कि आप पहले भी स्पष्ट कर चुकी हैं कि स्वान्त: सुखाय वाले फ़लसफ़े पर ये ठीक भी है । मगर कुछ प्रश्न यहां आपकी पोस्ट से भी उपज गए हैं ।
मुख्य अतिथि को सुने हुए बिना कोई नहीं गया था वहां से जहां तक मुझे याद है कि खुद बालेन्दु दधीच जी भी उनकी कही मूल बातें सुनने के बाद ही उनसे ही आज्ञा लेकर विदा हुए थे ।
ऐसे कार्यक्रमों मे दस पंद्रह मिनट की देरी को क्षम्य इसलिए माना जा सकता है या माना जाना चाहिए क्योंकि कम से ये उस स्थिति से तो बेहतर ही है जब कि बार बार किसी ब्लॉगर को अपना परिचय देना पडे जो आता रहे देता रहे ।
अब रही बात चायपान की या पुष्प गुच्छ की तो मेरे ख्याल से शायद आप इस बात को यदि अन्यथा न लें तो मैं ये कह सकता हूं कि वो पुष्प गुच्छ भाई अविनाश वाचस्पति जी ही लाए थे और वो भी अपनी मर्जी से ..ठीक उसी तरह से जैसे आप समीर जी के लिए एक निजि उपहार लाईं थीं ??
एक आखिरी बात सिर्फ़ दो घंटे के समय में लगभग चालीस पचास ब्लॉगर और मुख्य अतिथियों को विशेष समय देने के साथ ही कितना समय विमर्श के लिए बच पाता इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है ।
मुझे लगता है कि मैंने भी बिना लाग लपेट के ही कह डाला :) :) :)
आपके कुछ आइडिये रचनात्मक है आपके नामानुरूप !
ReplyDeleteउन्हें आजमाया जा सकता है ! मुझे लगता है कि बहुत कम ब्लोग्गर ही होंगे जो नेटवर्किंग और ब्लॉग्गिंग को अलग रख पाते होंगे ?
खैर !
निजी उपहार ...
ReplyDeleteअब निजी कहां रहा ...
जब अजय भाई की नजरों से बच नहीं पाया ...
रहस्य खोला जाए
जैसे खोले जाते हैं पुस्तक के पन्ने
जैसे छील कर निकाला जाता है गन्ने का रस
जैसे ...
अब तो बतला ही दें
सादर
क्रिएटिव होने में कोई बुराई नहीं , अगली बार ऐसी कोई संस्मारिका भेंट की जानी चाहिए गुलदस्तों के साथ - इतने भी हम गरीब नहीं कि किसी को दो फूल न दे सकें !
ReplyDeleteapane paas uplabdh maata pita duara rachit pustako kae khajane kae kuchh moti sameer aur unki patni kae liyae diyae they . kyuki pustakey saaf jalak rahee thee aur packet band nahin thaa is liyae chhupane jaesii kyaa baat thee ???
ReplyDeletehttp://mypoeticresponse.blogspot.com/2010/11/blog-post_4511.html
ReplyDeleteआभासी दुनिया मे करे क्या ब्लॉग विमर्श ???