हिन्दी ब्लोगिंग को संबंधो मे बंधना इतना जरुरी क्यूँ हैं । बार बार ये क्यों लिखा जाता हैं की बडे भाई समान हैं या बड़ी बहिन समान या पिता समान हैं हम इस लिये हमारी बात को मानो । बात को मनवाने के लिये उस पर संबंधो का वजन रखना और वो भी ब्लोगिंग मे कितना सही हैं ???? अरुण की पोस्ट पर दिनेशराय द्विवेदी का ये कहना "एक दोस्त और बड़े भाई और दोस्त की हैसियत से इतना निवेदन कर रहा हूँ कि कम से कम इस पोस्ट को हटा लें।"
क्यूँ सही हैं ?? अगर मात्र एक ब्लॉगर की तरह दिनेशराय द्विवेदी अपनी राय नहीं दे सकते थे ।
उसी पोस्ट मे ज्ञानदत्त पाण्डेय अपने कमेन्ट मे कहते हैं " धमकात्मक स्नेह की क्या जरूरत है? वह तो पिताजी ने बचपन में घणा दे दिया था! "
जिसका सीधा अभिप्राय हैं की सब समान हैं उम्र मे बड़ा छोटा और माता पिता का स्नेह / डांट डपट से मुक्त होकर बात करनी चाहिये ।
और ये पहली बार नहीं हुआ हैं सतीश सक्सेना की पोस्ट
मे वो सुजाता को समझाते हैं यह कौन सी सभ्यता और आचरण है जिसमे अपने पिता समान व्यक्ति से बात करने का सलीका भी नही आता !
दिनेशराय द्विवेदी की ही एक पुरानी पोस्ट ले ले जहाँ स्वपनदर्शी कहती हैं "मुझे हमेशा से ही ऐसे पुरुषो से आपत्ति रही है, जो पहला मौका देखते ही, आपको, बेटी और बहन, भाभी के सम्बोधन से नावाज़ते है. उनसे मै साफ कहती हू, कि मेरे पिता और भाई है, और बहुत लायक है, मुझे दूसरे पिता और भाईयो की ज़रूरत नही है. "
अभी कुछ दिन पहले ज्ञानदत्त पाण्डेय और रीता नाना नानी बने और इसकी चर्चा कविता ने चिट्ठा चर्चा पर की । मैने इंग्लिश मे लिखा gyan and reeta congrats . एक ब्लॉगर ने ईमेल से मुझे कहा "आपने ज्ञानजी और रीताजी को ऐसे बधाई जैसे वे आपसे बहुत छोटे हों! Roman में लिखने से उमर थोड़ी घट/बढ़ जाती है। "
अब मेरी और ज्ञानदत्त पाण्डेय की उम्र मे मुश्किल से ३ वर्ष की छोटाई बडाई हैं जिसकारण से रीता या तो मेरी हम उम्र होंगी या कुछ कम ही होंगी । केवल इस लिये क्युकी वो नानी बन गयी हैं मे उनको पुरातत्व मटेरिअल मान लूँ ये मुझे नहीं गवारा हैं । और फिर उनके अपने स्नेह सम्बन्ध हैं जहाँ बड़ा छोटा इत्यादि होगा ही फिर मै क्यूँ ब्लोगिंग मे भी उनको और अपने को इस सम्बन्ध मे बांधू जो केवल किसी को धमकाने के लिये काम आये ।
बात को कहने के लिये संबंधो का वजन रखना इतना जरुरी क्यूँ हैं ?? और ब्लॉग लिखते समय , कमेन्ट करते समय मे भी इसी बात को लेकर अगर हम एक दूसरे पर हावी होना चाहेगे तो शायद हिन्दी ब्लोगिंग अपने शैशव काल से निकल कर बाल्यकाल तक भी नहीं पहुचेगी क्युकी आज भी हमारे समाज मे बच्चो को कभी बालिग़ नहीं होने दिया जाता हैं ।
कुछ और लिंक्स इसी विषय पर
आप सब उम्र में मुझसे छोटी हैं. वैचारिक मंच पर शिष्टाचार जरूरी है.
अगर कोई यहां अपनी ज्यादा उम्र का रौब दिखाने की कोशिश करे तो लोग तो हंसेगे ही क्योंकि ब्लॉगर एक बच्चे या बुजुर्ग की तरह नहीं बल्कि एक विचार की तरह विमर्ष में शामिल होता है। यहां वह न चाचा-मामा-ताऊ होता है और न नानी-दादी-मौसी या बुआ। विचार को विचार से ही काटें या सहमति दें
सच बोलना जितना मुश्किल है , सच को स्वीकारना उस से भी ज्यादा मुश्किल है . लेकिन सच ही शाश्वत है और रहेगा मुझे अपने सच पर उतना ही अभिमान है जितना किसी को अपने झूठ से होने वाले फायदे पर होता हैं
मेरे ब्लॉग के किसी भी लेख को कहीं भी इस्तमाल करने से पहले मुझ से पूछना जरुरी हैं
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आपकी बात मे वजन है . पर एक बात यह भी कि हमे घुट्टी मे ही पिलाया जाता है बडो का सम्मान करना . अब ये बडो के उपर है कि वे हमे दबाने के लिये अपने बडप्पन का भार वजह बेवजह हमारे उपर डाले या थोडा सोचे की . जो सम्मान मिला है उसे कैश ना कराये . ज्ञान जी और आपकी बात १००% सही है ्वाकई मे हमे अपने आप को बदलना चाहिये और हमे समान एक समान स्तर पर आकर बात करनी चाहिये.लेकिन भारतीय जनमानस मे मैने एक बात देखी है कि वह खुद दो अग्रेजी परिवेश मे आपको नाम से बुलाना और उसी तरह बराबरी के स्तर पर पेश आने की बात करते है . लेकिन अगर आपने ऐसी भूल उन्हे नाम से बुलाने की या बराबरी के स्तर पर बात करने की कर दी जो ज्नाब आप गये ्काम से :)
ReplyDeleteआपकी बात में दम है। पर हम क्या करें, "संस्कार" बोझ से ऐसे दबे हैं कि गैर-महिलाओं से तू-तड़ाक करने में झिझक होती है, ब्लॉग पर फ़ोटो देखकर बुजु्र्गों का लिहाज़ जैसी बात भी जाने-अनजाने आ ही जाती है… हर किसी से "यार-दोस्त" जैसा व्यवहार करना बड़ा मुश्किल होता है। फ़िर आजकल "अवमानना" भी लोग बड़ी जल्दी ओढ़ लेते हैं… :)
ReplyDeletesahi baat
ReplyDeletekhari baat !
किसी का सम्मान करना या स्नेह रखना बुरी बात नहीं है। हमारी संस्कृति तो सारी प्रकृति से प्रेम करना सिखाती है। क्या हम अपनी संस्कृति छोड़ दें?
ReplyDeleteकिसी को कुछ समझाना , स्नेह रखना इत्यादि
ReplyDeleteबाते , ब्लॉग पर उम्र के बडे छोटे होने से फरक हैं
और संस्कार और संस्कृति कभी भी ये नहीं
सिखाती की दुसरे को दबाओ क्युकी तुम बडे हो
उम्र मे . वैसे भी मे यहाँ केवल और केवल ब्लॉग
पर "उम्र" का "टैग" लगा कर अपनी बात को
"वजनदार " करने पर चिंतन कर रही हूँ और
साक्ष्य भी दे रही हूँ की और भी बहुत से लोग
इस बात से परेशान हैं . ब्लोगिंग को भारतीये
परिवार का एक्सटेंशन बना कर हम डिस्कशन par अंकुश लगाते हैं
u are doing a yeoman's work for hindi blogging.i may or may not fully agree with this post but it is in continuation of the constant effort that u are putting to draw contours of hindi blogging.my good wishes are with u.
ReplyDelete"परिवार का एक्सटेंशन बना कर हम डिस्कशन पर अंकुश लगाते हैं" - सहमत.
ReplyDeleteबात सही है।
ReplyDeleteसंस्कार या शिष्टाचार के तर्क भी अपूर्ण ही हैं दरअसल भाषा को निर्दोष या निरापद मान लेना एक भूल है वह अपने ढॉंचे में ही मूल्य लिए होती है अत: जब सलाह के साथ उम्र, रिश्ते या कोई अन्य दबाब जोड़े जाते हैं तो वे अक्सर विकार लाते ही हैं।
ये भारत की पुरानी परंपरा है कोई दूकानदार से सामान खरीदते वक्त ये कहता है
ReplyDelete"भैया ये सामान दो"......
तो क्या वो भाई हो गया जबकि वो पहले मिले भी नहीं
ये तो केवल एक संबोधन है जो जाने अनजाने लोग कह देते है कोई सलाह दे तो ये कहे की
"मैं एक ब्लोगेर की हैसियत से कहता हूँ की तुम ऐसा करो"
तो उसमे स्नेह नहीं आदेशात्मक झलक मिलती है
वीनस केसरी
आपकी बात में दम है ! (यह मैं एक ब्लॉगर की हैसियत से कह रहा हूँ )
ReplyDeleteसहमत हूं आपसे लेकिन संस्कारो को भी तो नही छोड़ सकते।यंहा छत्तीसगढ मे तो नमस्कार ही पायं लागू कह कर किया जाता है।संपादको से या पद मे बडे लोगो से ,लाख वैचारिक मतभेद हो सार्वजनिक स्थल पर भी त्योहार या विशेष अवसरो पर चरण स्पर्श करते लोगो को देखा जा सकता है।सब मानते है पर रिश्ता चाहे ब्लाग का हो या खून का,दिल से मान रहे हो तो निभ जाता है वर्ना समाज मे तो देख ही रहे हैं भाई-भाई से लड़ रहा है, सास बहु से लड़ रही है, बंटवारे हो रहे है,खून खच्चर हाहाकार मचा हुआ है।ये तो वैसे ही है सड़क पर पड़े सिंदुर लगे पत्थर को मानो तो बजरंगबलि वर्ना जो चाहे समझईये कौन किसे मना कर सकता है।सब कुछ देखने वालो पर है कि वे किसे कैसा देख रहे हैं।मेरा उद्देश्य ज्ञान बघारना नही है कोई बात बुरी लगी हो तो एड्वांस मे क्षमा मांग लेता हूं।
ReplyDeleteकोई भी समाज बिना रिश्तों के नहीं चलता
ReplyDeleteअब पत्नीजी से अदब तो हम भी दिखाते हैँ - उनके लिये मैने सदा "पत्नीजी" लिखा है! :)
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