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June 29, 2011

हे नर , क्यों आज भी इतने कमजोर हो तुम

हे नर

क्यों आज भी इतने कमजोर हो तुम
कि नारी को हथियार बना कर
अपने आपसी द्वेषो को निपटाते हो

क्यों आज भी इतने निर्बल हो तुम
कि नारी शरीर कि
संरचना को बखाने बिना
साहित्यकार नहीं समझे जाते हो

तुम लिखो तो जागरूक हो तुम
वह लिखे तो बेशर्म औरत कहते हो

तुम सड़को को सार्वजनिक शौचालय
बनाओ तो जरुरत तुम्हारी है
वह फैशन वीक मे काम करे
तो नंगी नाच रही है

तुम्हारी तारीफ हो तो
तुम तारीफ के काबिल हो
उसकी तारीफ हो तो
वह "औरत" की तारीफ है

तुम करो तो बलात्कार भी "काम" है
वह वेश्या बने तो बदनाम है

हे नर
क्यों आज भी इतने कमजोर हो तुम

9 comments:

  1. आपकी ये कविता मैं पहले भी कई बार पढ़ चुका हूँ.हमेशा प्रभावित करती है ये पंक्तियाँ.मैं कुछ दिन पहले आपकी एक और कविता दूसरी औरत वाली फिर से पढना चाह रहा था लेकिन वो मुझे मिली नहीं.उस पर बहुत अच्छी बहस भी हुई थी.

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  2. दो शुक्रिया ..एक तो इस सुन्दर काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए और दूजे हैं की बिंदी हटाने के लिए !

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  3. भावपूर्ण रचना बधाई

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  4. हा पुरुषवादी समाज में उसे इतनी तो छुट मिलनी ही चाहिए !

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  5. इस क्यों का सवाल यही है.. कि शायद उसकी नियति यही हो... आदम द्वारा वर्जित फल चख लेने का शायद यही सिला हो !

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  6. हर लाइन में दम है ....
    शुभकामनायें !

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  7. बिना लाग लपेट के जो कुछ भी आपने कहा है वह कटु सत्य है। इस दोहरी मानसिकता के ग़ुलाम लोगों का क्या कहना!

    (इसे ठीक कर लें = शरीर कि = की)

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  8. कुछ अंशों में सच्चाई ही है !

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