Delhi Belly अमीर खान की इस फिल्म की बड़ी आलोचना चल रही हैं । मैने नहीं देखी क्युकी में पहले हफ्ते का रिव्यू अखबार में पढ़ कर ही मन और समय हो तो क़ोई फिल्म देखती हूँ ।
आलोचना का सबसे बड़ा मुद्दा हैं उस फिल्म में दी गयी गलियाँ , अपशब्द । ब्लॉग जगत में में भी कई पोस्ट इस फिल्म को ले कर आयी हैं । सब में आलोचना का मुद्दा एक ही हैं की " ये मान भी लिया जाये की गलिया और अपशब्द आम जिन्दगी का हिस्सा हैं और फिल्म में दिये गए अपशब्द और गलियाँ सदियों से बोली जा रही हैं और आज के बच्चे खुले आम इस असांस्कृतिक भाषा का प्रयोग कर रहे हैं तब भी ये सब दिखना क्या जरुरी हैं ।
फिल्म बनाना एक क्रीएटिव काम हैं जैसे किताब लिखना , पेंटिंग करना इत्यादि । अगर हमे किसी की क्रेयेतिविटी नहीं पसंद हैं तो हम उसको प्रतिबंधित करने की मांग करते हैं पर जब अपनी बारी आती हैं तो हम
सब भूल जाते हैं ।
कुछ दिन पहले अजीत गुप्ता ने अपने ब्लॉग पर एक सवाल उठाया था की जब भी २-४ ब्लोगर कहीं मिलते हैं और साथ बैठ कर मदिरा का सेवन करते हैं तो उसके चित्रों को ब्लॉग पर क्यूँ डालते हैं । उस समय बहुत से ब्लोगर ने उस पोस्ट पर कहा था हाँ उन्हे ऐसा नहीं करना चाहिये था ।
लेकिन अब लगता हैं ये फैशन होगया हैं बताना की हम मिले , हमने शराब पी और हमने एन्जॉय किया ।
यानी आप को अधिकार हैं मदिरा सेवन करने का और उसको सचित्र और नाम के साथ सीना ठोक कर ब्लॉग पर डालने का क्युकी आप को अभिव्यक्ति की स्वंत्रता का अधिकार हैं । आप बालिग हैं और कानून शराब पी सकते हैं और ब्लॉग एक डायरी हैं उस पर आप अपने मन का लिख भी सकते हैं ।तब भी ये सब दिखना क्या जरुरी हैं ।
आज भी सुसंस्कृत भारतीये परिवारों में घर में शराब नहीं पी जाती ऐसा बहुत जगह पढने को मिल जाता हैं लेकिन बाहर जा कर मदिरा का सेवन करने वाले और उसका विवरण सचित्र करने वाले ब्लॉग पर जब अमीर खान की फिल्म को , अमीर खान की सोच को वाहियात कहते हैं तो सोचने पर मजबूर होना ही पड़ता हैं ।
हाथ में गिलास लेकर मदिरा का महिमा मंडन करने वाले जब नयी पीढ़ी पर तंज कसते हैं तो गलती कहां हुई दिखता हैं ।
सच बोलना जितना मुश्किल है , सच को स्वीकारना उस से भी ज्यादा मुश्किल है . लेकिन सच ही शाश्वत है और रहेगा मुझे अपने सच पर उतना ही अभिमान है जितना किसी को अपने झूठ से होने वाले फायदे पर होता हैं
मेरे ब्लॉग के किसी भी लेख को कहीं भी इस्तमाल करने से पहले मुझ से पूछना जरुरी हैं
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रचना जी, जफ़र के गीत की यह पंक्तियाँ याद आ गयीं
ReplyDeleteन थी हाल की जब हमें अपनी खबर, रहे देखते औरों के एबों हुनर
पड़ी अपनी बुराईयों पर जो नज़र, तो निगाह में कोई बुरा न रहा.
ऊपर की टिप्पणी से कोट कर रही हूँ .. "...तो निगाह में कोई बुरा न रहा" ..
ReplyDelete....बल्कि यह कहिये कि - दोनों ही इतना बुरा रहा कि एक दूसरे की बुराई को धूमिल कर गया ...
एक पुरानी पोस्ट है - सफ़ेद घर पर - जिसमे एक पान की दूकान वाला खुद जेल में रह आया है (किसी से पैसे छीनने के आरोप में) , और अब अखबार में किसी स्त्री के जेल जाने की खबर है | वह अपना जेल जाना तो छाती ठोक कर "मर्दानगी" कहता है और गर्व करता है | लेकिन उस स्त्री के लिए बड़ी गन्दी गालियाँ (या कहें कि "आम " गालियाँ ?) निकालता है और कहता है कि "ऐसन अउरत को तो गोली मार दि चाहिब" |
हम दोहरे मापदंडों में जी रहे हैं | मुझे बहुत दुःख होता है जब किसी ब्लॉग पर देखती हूँ कि "जो स्त्रियाँ धनोपार्जन नहीं कर रहीं, हमें उनके उत्थान के लिए यह करना चाहिए और वह करना चाहिए | " और वही स्त्री यदि घर से निकाल कर कमाने लगती है, तो अचानक तथाकथित "नारीवादियों " की नज़र ही बदल जाती है - कि अब यह तो "स्वतंत्र " हो गयी ...| जैसे कि वे स्त्री के उत्थान के लिए नहीं, अपनी महानता को दुनिया पर जाहिर करने के लिए ही सब कर रहे थे ... |
क्यों ? जो स्त्री कमा रही है - उसकी कोई मजबूरियां नहीं हैं? उसे दर्द नहीं होता ? उसका दिल नहीं दुखता ? कम से कम जो कमा नहीं रही - उसे सहानुभूति तो मिलती है कि " बेचारी अपनी मर्जी से जी नहीं पा रही " | किन्तु जो कमा रही है - उसके प्रोब्लेम्स से हम आँख मूँद क्यों लेते हैं ? उसकी भी वही भावनात्मक बेड़ियाँ हैं, जो न कमाने वाली की हैं | बल्कि उसके पास तो यह कारण भी नहीं बचता कि बेचारी आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं तो पेरेंट्स आदि के लिए अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं कर पा रही | आज जील ब्लॉग पर एक बहुत माम्रिक कहानी है चंचल की | तो चंचल से सबको सहानुभूति है, क्योंकि वह चाह कर भी अपनी बीमार माँ के लिए कुछ कर नहीं रही, कि पैसे नहीं हैं | पर यदि उसकी कमाने वाली बहन के घर से भी मजबूरी और प्रेशर होता और वह नहीं कर पाती , तो हम उसकी ओर सहानुभूति नहीं, हिकारत से देखते | क्या यही है महिला मुक्ति? यह दोहरे मापदंड ? पुरुष के लिए अलग क़ानून, धनोपार्जन करने वाली स्त्री के लिए अलग , और घर में रहने वाली स्त्री के लिए अलग?
आपकी बात से सहमत हूँ .... जिस तेज़ी से पाश्चात्य सभ्यता का असर हो रहा है उतनी तेज़ी से मान्यताएं बदल रही हैं ...
ReplyDeleteआदमी जो काम करता है, वह न तो उसे बुरा मानता है, न ही उसकी बात करना। इसके साथ उसकी चर्चा करने में एक बहादुरी के भाव देखता है वह।
ReplyDeleteयह बात शराब पीने, धुम्रपान करने और मांसाहार तीनों पर लागू होती है। जबकि इन चीजों का सेवन न करने वाले लोग इन्हें बुरी नजर से देखते हैं।
प्रेम एक दलदल है..
’चोंच में आकाश’ समा लेने की जिद।
यहाँ बात "व्यवहार और उसके प्रदर्शन " की हैं न की शराब सिगरेट और मांसाहार के पसंद ना पसंद की
ReplyDeleteजाकिर जी
व्यक्तिगत तौर पर मैं इसे सही नहीं मानता।
ReplyDeletevery truly said.
ReplyDeleteमुग़ल काल के लोगों अस्सलाम वालेकुम !
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